गुरु तेग बहादुर जी के प्रसंग से समझाया कि वक़्त के मौजूदा समरथ गुरु ही होते हैं मददगार

जय गुरु देव

प्रेस नोट: 23.11.2022 सीतापुर (उ.प्र.)


सन्त मत की शिक्षाओं को समझ कर अमल में लाने की है जरूरत, इस समय के समरथ गुरु को खोजो

निजधाम वासी परम सन्त बाबा जयगुरुदेव जी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी, केवल ग्रंथों, किताबों को पढ़ने तक ही सीमित न रहने और उनके पीछे छुपे गहरे सच्चे अर्थ को बता-समझाकर जीवों को अपने आत्म कल्याण के लिए मार्ग दर्शन देने वाले इस समय के मनुष्य शरीर में मौजूद त्रिकालदर्शी, परम दयालु, दुःखहर्ता, पूरे समरथ सन्त सतगुरु उज्जैन वाले बाबा उमाकान्त जी महाराज ने 21 नवंबर 2022 को सीतापुर (उ.प्र.) में दिए संदेश में गुरु तेग बहादुर जी के प्रसंग से गुरुमुख बनने का संदेश दिया।

आध्यात्मिक उत्तराधिकारी तेग बहादुर जी की कहानी

गुरु हरकिशन पंजाब में हुए। जब उनको शरीर छोड़ना हुआ तो लोगों ने पूछा अब हमारी संभाल कौन करेगा? परमार्थी रास्ते पर कौन चलाएगा? नामदान कौन देगा? तब उन्होंने कहा की बाबा बकाला गांव में वह मिलेगा, संभालेगा, उपदेश करेगा। हरकिशन जी के मुरीद शिष्य थे मक्खन शाह। व्यापार करने के लिए विदेश गए हुए थे। वहां से बड़े जहाज में माल लेकर आ रहे थे। तूफान में जहाज खूब डगमगाया। जब लगा कि अब डूब जाएगा तो गुरु को याद किया, कहा अब आपके अलावा बचाने वाला कोई नहीं है, आप ही बचाओगे तो जान-माल दोनों बचेगा। जिसका कोई सहारा नहीं होता, उसका वह मालिक होता है। परमात्मा से वक्त के सतगुरु जुड़े हुए होते हैं। हरकिशन महाराज के बहुत शिष्य थे लेकिन उन्होंने वो रूहानी दौलत तेग बहादुर जी को दिया था। जब अधिकार दूसरे को दे देते हैं तो पावर भी देते हैं। जब मक्खन शाह वक्त के गुरु को याद किए तब सुनवाई हो गयी। कहते हैं नींबू को निचोड़ते पर रस निकलता है। कुछ लोगों का ऐसा ही स्वभाव होता है। जब जान के ऊपर आफत आती है तब भगवान को याद करते हैं, तब चाहे धन-दौलत सब कुछ चली जाए। तो बोले अगर जान-माल बच गया तो 500 अशर्फीयां (सोने का सिक्का) गुरु जी को भेंट करेंगे। तो दया हो गई जान बच गई। विश्वास तो हो ही गया था कि गुरु जी ने ही बचाया है तो चलो उनका कर्जा 500 अशर्फी का, दे आवें।

गुरु से कपट, मित्र से चोरी। या हो निर्धन या हो कोढ़ी।।

संकल्प बनाया, पहुंचे तो पता चला कि गुरुजी शरीर छोड़ दिए। सोचे ये कर्जा किसको कहां अदा करें? तो कहा उत्तराधिकारी बकाला गांव में मिलेगा। नाम तो किसी का लिया नहीं था। तो कुछ मनमुखी शिष्यों ने अपनी-अपनी दुकान लगा दिया। 22 गुरु हो गए। सब अपने को उत्तराधिकारी घोषित कर दिए।

मन मुखी कौन होते हैं?

मन मुखी वो जो मन के अनुसार ही चलता है। मन का ही गुलाम हो जाता है। महात्माओं के पास कई तरह के जीव आते हैं। कुछ अच्छे भाव वाले कि नाम दान लेकर भजन करेंगे, जो समरथ गुरु कहेंगे, पालन करेंगे। सेवा भी करते हैं तन, मन, धन से कि बढ़ जाएगा। मेहनत कम करनी पड़ेगी क्योंकि गुरु किसी का रखते नहीं हैं। एक का 10 गुना करके वापस कर देते हैं। किसी को जरूरत पड़ी तो गुरु महाराज ने 50 गुना भी करके दिया।

कैसे वक़्त के गुरु ने मदद की, पहचान बताई

जब वहां पहुंचे तो बोले के उत्तराधिकारी तो एक ही होता है। हमको तो आध्यात्मिक उत्तराधिकारी के पास जाना है। तो फिर सोचा कि चलो थोड़ा-थोड़ा सबको दे दे। जो हम को बचाया होगा वह कुछ न कुछ बोलेगा, चर्चा करेगा। अब मन बदल गया, 500 से 5 पर आ गया। दिया तो सब लोग आशीर्वाद देते चले गए। कोई बोला नहीं की हमने आपकी जान बचाई थी। पूछा की कोई और महात्मा है जो ध्यान, भजन, सुमिरन करता हो? तो कहा तेगा है, चुपचाप बैठा रहता है, खूब भजन करता है। गया। ध्यान में बैठे थे। ध्यान में ही देखा की आया है तो आँख खोले। उनको भी पांच अशर्फी दिया। देखा तो कहा बाकी कहां गया? कपड़े को पीठ से हटाया और दिखाया कि देख कितने कीले के निशान बने हुए हैं तेरा जहाज उठाने में, कितनी मेहनत पड़ी और तू वादा को भूल गया, मन के कहने में आ गया। क्या गुरु महाराज ने यही सिखाया था कि मन मुखी बन जाओ, गुरु मुखता छोड़ दो, जो गुरु कहे उसको न करो? तो ऐसे यह मन धोखा दे देता है। तो ख़ुशी के मारे तुरंत छत पर चढ़ कर अपनी भाषा में चिल्लाने लगा- गुरु लाधो रे! यानी असली गुरु पहचान में आ गए।

इससे क्या शिक्षा मिलती है

गुरु के पास तो कहते हैं भजन करेंगे, नाम दान दे दो लेकिन फिर खानपान, विचार, भावना गलत हो जाती है और काम क्रोध की अग्नि में साधक जलने लग जाता है। इसलिए गुरुमुख बनो।

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